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कविता

जागो हे कविकांत

प्रेमशंकर मिश्र


देश काल की सीमाओं से ऊपर उठक
छिन्‍न-भिन्‍न मानवता के
बिखरे स्‍वर चुनकर
एक बार
फिर से
युगवाणी की पुकार पर
जागो हे कविकांत!
कि कविता
फिर से अपनी माँग सँवारे।
श्रद्धा और विश्‍वास जगे
धरती को फिर आकाश पुकारे।
शब्‍दकार!
'अनमिल आखर' में
तुमने ऐसा अर्थ पिन्‍हाया
'मरा' हो गया 'राम'
राम से अधिक नाम का मर्म बताया।
कथाकार!
'नाना पुराण की सम्‍मति में' कुछ और मिलाकर
तुमने ऐसी गढ़ी कहानी
कौआ हुआ परम विज्ञानी
केवट तारनहार
भीलनी भक्ति भवानी।
चित्रकार!
तेरी तूली की
'साबर मत्री' सहज विधाएँ

एक बिंदु शिव तत्‍व
कि जिस पर
उजली काली दो रेखाए
प्रकृति विकृति की
हुई समंवित
राम और रावण की अंविति।
किंतु पितामह
सदियों के इस अंतराल में
'सियाराममय' जग के
लाल विलास ताल में
जैसे डमरू फूट गया है
हृद्तंत्री का
मध्‍यम पंचम टूट गया है
उत्‍तर-दक्खिन छूट गया है।
आज चतुर्दिक ध्‍वंस राग हैं
प्राणहीन पुतलों में
धधकी द्वेष आग है।
नर का वानर नोच रहा है
जैसे कोई
मन का गला दबोच रहा है।
जागो हे स्‍वरकांत!
कि बंधक पड़ी भरती
निर्भय हो निर्बंध
मंथरा को धिक्‍कारे
श्रद्धा और विश्‍वास जगेधरती को फिर आकाश पुकारे!


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